माघ मेला: "आस्था के दोनों रंग , हिन्दू-मुश्लिम संग संग"


इलाहाबाद / वैसे तो माघ मेला हिंदुओ की धार्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत का अदभुत सामंजस्य है पर इस मेले में गंगा जमुना तहजीब की तस्वीर स्पष्ट रूप से उन मुश्लिम परिवारों के कार्य से भी दिखती है जो कई दशक से लगातार इस माघ मेले में छोटे छोटे व्यापार करते आ रहे हैं । खास बात यह है कि ये सभी विशेष तौर पर खुले रंगों को घूम घूम कर बेचते हैं जिनका प्रयोग हिंदुओ विभिन्न प्रकार के कार्यों को करने में किया जाता है । कहने को तो देश का माहौल सही नही है लेकिन प्रयाग की पावन धरती पर हिन्दू-मुश्लिम एकता को देखकर यह किसी मजाक से कम नही लगता कि हम अलग हैं । रंगों के व्यापार में सबसे ज्यादा महिलाएं और बच्चे ही दिखते हैं और बुजुर्ग ज्यादातर बर्तनों का व्यापार करते दिखते हैं । 

सीतापुर से आये 32 वर्षीय इस्लाम उर्फ़ बबलू बताते हैं कि पिछले 20 सालों से लगातार मेले में आ रहे हैं और यहाँ आकर यही लगता है कि हम अपने ही घर में हैं । इस्लाम कहते हैं कि मानों तो कई देवता हैं न मानों तो कोई नही पर सभी धर्मों का एक ही अल्लाह , ईश्वर एक है जो हर मानव को प्रेम से रहने का संदेश देता है । हम सभी ऊपर से एक ही शरीर में जन्म लेते हैं पर यहाँ हमे आपस में बाँट कर तरह तरह के नाम दे दिए जाते हैं । इस्लाम की बहन नसरीन बताती हैं कि हम मेले में कई दिन पहले ही आ जाते हैं और मेला खत्म होने के बाद ही जाते हैं । यहीं खाते पीते हैं । 

68 वर्षीय बिल्ला बताते हैं कि मैं पिछले 5 दशक से मेले में आ रहा हूँ और मैंने कभी यह महसूस नही किया कि यह पावन संगम केवल एक ही धर्म का पावन स्थान है बल्कि मुझे हमेशा यही लगा कि यह संगम पूरी मानवता का मिलन क्षेत्र है जहाँ किसी भी धर्म का व्यक्ति आस्था की डुबकी लगा सकता है । बिल्ला बताते हैं कि हम कई तरह के व्यापार करते हैं जैसे बर्तन बेचना ,रंग बेचना ,लकड़ी आदि । धर्म के विषय पर पूछने पर बिल्ला कहते हैं कि आपस में धर्म का भेद नही होना चाहिए जैसे अमरनाथ और वैष्णोदेवी यात्रा के दौरान मुश्लिम भाई यात्रियों के साथ पिट्ठू बनकर जाते हैं और सभी खुशी खुशी एक दूसरे के साथ समय बिताते हैं तो फिर काहे की दुश्मनी  ,हमें भी यहाँ कभी ऐसा नही लगा कि हम अलग हैं ।

हरदोई से माघ मेले में आये 10 वर्षीय इक़बाल और 11 वर्षीय समसदुद्दीन भी मेले में टहल टहल कर रंग बेचते हैं और जीवन यापन करते हैं । दोनों बताते हैं कि हमने बरसो पहले ही पढाई छोड़ दी थी और यही काम करते हैं और साथ में खूब खेलते हैं । इक़बाल के पिता एहसान कुरैशी से जब यह पूछा गया कि बच्चो को पढाई क्यों नही करवा रहे हैं । एहसान बताते हैं कि बच्चों को कैसे पढ़ाऊँ जब घर में खाने को नही है । यहाँ दो पैसे कमाएंगे तो गुजारा होगा । एहसान कहते हैं कि मुझे और मेरे बच्चों को कभी यह महसूस नही होता हम घर से दूर हैं । हिन्दू भाई साथ ही रहते हैं फिर पेट की आग से बढ़कर कुछ नही होता चाहे वह धर्म हो या फिर जाति ।

नासिक से आये 45 वर्षीय अनिल प्रधान जो इन मुश्लिम भाइयों के साथ अपनी जड़ी बूटी की दुकान लगाते हैं उनका कहना है कि मानवता से बड़ा दुनिया दूसरा कोई धर्म नही होता है । हम सभी भाई भाई हैं ।अनिल कहते हैं कि आस्था के चाहे कितने ही अलग अलग रंग हों पर हमारा रंग एक है और वो है 'एकता का रंग' । जो हमारी संस्कृति का प्राण है । 

 बहरहाल संगम नगरी इलाहाबाद में आस्था के अनगिनत ऐसे सांस्कृतिक रंग देखने को मिल जायेंगे लेकिन आस्था के ये दोनों रंग (हिन्दू-मुश्लिम संग संग) अद्वितीय हैं । शायद यही रंग हमारी सांस्कृतिक एकता को मजबूती प्रदान करता है जिस कारण हमारी भारतीय संस्कृति आज भी विश्व की सबसे प्राचीन और समृद्ध संस्कृतियों में से एक है । 

स्पेशल रिपोर्ट - अनुज हनुमत
ईमेल - anujmuirian55@gmail.com

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