आखिरकार दस्यु सम्राट ददुआ को मरणोपरांत मिल ही गया भगवान का दर्जा, मूर्ति हुई स्थापित


    पाठा की सरजमीं में लगभग चार दशक से भी ज्यादा लम्बे समय तक आतंक का पर्याय रहे  दस्यु सम्राट ददुआ की मूर्ति का अनावरण अंततः धाता (फतेहपुर) में कर दिया गया है जिसके बाद अब वो मरणोपरांत भगवान् की श्रेणी में आ गये हैं जबकि अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में #ददुआ का दूसरा अर्थ दहशत ही था। बुंदेलखंड के बीहड़ो में दो दशक तक आतंक की दुनिया का सरगना बना रहा दुर्दांत डकैत दस्यु शिवकुमार पटेल और ददुआ की मूर्ति लगने को लेकर बेतरतीबी से विरोध देखा जा रहा था पर आज फतेहपुर से ८० किमी दूर धाता ब्लॉक के कबरहा गाँव में हनुमान मंदिर में वैदिक मंत्रोचारण के बीच दुर्दांत डकैत ददुआ की मूर्ति स्थापित कर दी गई है. जिसको देखने के लिए दूर दराज़ के गाव से लोगो के भीड़ जमा हो रही है.
          गौरतलब हो कि एक लम्बे समय तक बुंदेलखंड के बीहड़ो में अपने आतंक का सिक्का जमाये रखने से लेकर बुंदेलखंड की सियासत की दुनिया में अपने हुक्म की नाल ठोंककर मनचाहे प्रत्याशियों को सियासत की दुनिया का बेताज बादशाह बनाने वाला डकैत ददुआ जुलाई २००७ में एसटीएफ मुठभेड़ में मार गिराया गया था जिसके बाद एक के बाद एक डकैतो ने सर उठाना चाहा लेकिन ददुआ की तर्ज़ में कोई और डकैत बीहड़ो का सरदार लम्बे अरसे तक बन नही पाया, हालांकि सूत्रों की मानें तो ददुआ की मौत से संभ्रांत और धनाढ्य लोगो में ख़ुशी का माहौल था तो वही दूसरी तरफ गरीब-मज़लूमो की हमदर्दी भी थी,            बीहड़ सूत्रों के मुताबिक़ डकैत ददुआ गरीबो का हमदर्द था तो वही दूसरी तरफ रसूखदारों का मुखालिफ भी. ये बात तब जगज़ाहिर हुई जब मुठभेड़ में मारे गए डकैत के पास से मिली रहस्यमयी डायरी में बुंदेलखंड के तमाम रसूखदारों, व्यापारियों का हिसाब किताब दर्ज पाया गया. फिलहाल कबरहा हनुमान मंदिर में जन-सैलाब के लाख विरोधो के बावजूद इस वक़्त दस्यु ददुआ व पत्नी केतकी, व उसके माता पिता की मूर्ति मंदिर में स्थापित कर दी गई है. उसके बाद मंदिर परिसर में बड़े पैमाने पर भंडारे का आयोजन चल रहा है/  देखना ये है कि क्या हनुमान भक्त कबरहा मंदिर में हनुमान जी की पूजा के साथ-साथ ददुआ को पूजते हैं या फिर नज़र अंदाज़ करते हैं ये बात दीगर होगी/
राजनीतिक गलियारों में बुन्देलखण्ड की पूरी डोर चाहे वो विधानसभा हो या लोकसभा , नगर पंचायत हो या नगर पालिका ,जिला पंचायत अध्यक्ष हो या ग्राम प्रधान हो सभी का निर्णय ददुआ की अनुमति के बगैर नही होता था । एक पक्ष जो आतंक के इस पर्याय को औरों से अलग करता है वो ये की पूरे क्षेत्र में एक बात लगभग हर मुह से कही जाती है की 'ददुआ कभी गरीबों पर जुल्म नही करता था बल्कि उनकी ज्यादा से ज्यादा मदद ही करता था जिसके कारण उसे 'भारत के राबिनहुड' की भी संज्ञा दी जाती थी । बरहाल अब ये तो आने वाला समय ही बताएगा कि इस मूर्ति को कितने लोग पूजतें हैं ? कुछ भी हो पर अब ददुआ की मूर्ति स्थापना के बाद कुछ प्रश्नों के जवाब खुद समाज पर ही छोड़ दिए जाए तो बेहतर होगा । शायद यही समाज का असल चेहरा भी है जिसमें समय रहते हर किस्म के चेहरे को जगह मिल ही जाती हैं ।

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