#Visit Mount Abu - विंध्य से अरावली की पहाड़ियों तक का सफर ...कुछ खास है

यात्रा वृतांत - विंध्य की पहाड़ियों से अरावली की दुर्गम पहाड़ियों तक कुछ खास है .... चारो तरफ फैली प्राकृतिक शांति





यूँ तो मेरी उम्र का काफिला 24 के पड़ाव तक पहुंच चुका है लेकिन घूमने का शौक शायद इससे भी पुराना है । अभी तक भारत देश के हजारो किमी रास्ते का सफर तय कर चुका हूं । जिंदगी में सिर्फ एक यही 'घूमने' का शौक है जिसमे कदम बढ़ाने के बाद कभी थकावट महसूस नही होती । हमेशा किताबो में पढ़ा करता था कि ऊंची ऊंची पहाड़ियों में बसने वाला जीवन बहुत ही सुंदर और सभ्य होता है।  वैसे तो मैं भी विंध्य की ऊंची ऊंची पहाड़ियों से घिरे #पाठा इलाके का निवासी हूँ । लेकिन बावजूद इसके शायद यही कारण है कि मुझे इन पहाड़ो ने हमेशा अपनी तरफ खींचा है । चाहे उत्तराखण्ड की यात्रा रही हो , चाहे मध्य प्रदेश -छत्तीसगढ़ की या फिर राजस्थान की यात्रा -हमेशा पहाड़ी इलाकों की खूबसूरती ने यहाँ की शांति ने अपनी ओर खींचा है ।
अचानक से माउंट आबू जाने का प्लान बना । राजस्थान प्रदेश का इकलौता हिल स्टेशन माउंट आबू । फिर क्या इंटरनेट में जांच पड़ताल शुरू । वैसे तो बचपन से लेकर अभी तक माउंट आबू का जिक्र सिर्फ किताबों में पढा था लेकिन इस यात्रा का ख्याल भर ही दिल मे नई ऊर्जा का संचार कर गया । सफर लम्बा था क्योंकि चित्रकूट से माउंट आबू की दूरी हजारो किमी है । फटाफट ट्रेन के टिकट बुक कराये गये लेकिन सफर थोड़ा लम्बा होने वाला था क्योंकि हमें दो शिफ्ट में माउंट आबू तक पहुंचना था । पहला पड़ाव चित्रकूट से अहमदाबाद का था और दूसरा अहमदाबाद से आबू रोड( माउंट आपबू) का । लगभग 32 घण्टे की लंबी थकावट भरी यात्रा के बाद हम रात 2 बजे आबू रोड पहुंचे ।
स्टेशन से उतरते ही हवा के ठंडे से थपेड़े ने शरीर  का आनंदमयी स्पर्श करते हुए आबू में स्वागत किया । ये बात भी बिल्कुल सही है कि अगर आपको यात्राएं पसन्द हैं आप कुछ नया महसूस करने की ललक रखते हैं तो फिर आपको अपने गंतव्य में पहुचते ही थकान का रत्ती भर भी अनुभव नही होगा । ठीक ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ । मानों यहाँ की हवाओं ने हमारे ही स्वागत में खुद को एक स्थान पर समेटकर रख दिया हो । जिदंगी की पहली रात थी जब अपने सपनो को सच मे जीने का समय था । सपना , माउंट आबू घूमने का था जो यहां पहुचते ही पूरा हो चुका था । आज की नींद कई मायनों में खास थी इसलिए न तो खाना ही खाया गया और  न ही नींद आई । किसी अपने के नाराज होने पर आपका समय रुक जाता है । यही हुआ माउंट आबू आते ही रात से सुबह का फासला लम्बा हो गया । खैर अपने ही आपको समझते भी हैं यही सच्चाई है ।

गरमा गरम चाय के साथ आबू की सुबह हुई । आज आबू की पहाड़ियों को घूमने का प्लान था । समुद्र तल से हजारों फीट की ऊंचाई , कई किमी अरावली की ऊंची ऊंची पहाड़ियों का टेढ़ा मेढा दुर्गम जंगलो से होता हुआ रास्ता जिससे हमें जाना था । पिछली कई यात्राओं से खास और रोमांचभरी होने वाली ये यात्रा । तकरीबन एक घण्टे बड़ी बड़ी पहाड़ियों का चक्कर लगाने के बाद हजारो फीट की ऊंचाई पर पहुचना हुआ । आबू रोड नगर पालिका के अंतर्गत आता है । पर्यटन के लिहाज से सारी जिम्मेदारियों का निर्वाहन नगर पालिका द्वारा किया जाता है । .  


आबू पर्वत की खूबसूरती का वर्णन करना कठिन है ।
इस स्थान को लेकर कई पुरानी कहानियां/ किवदंतियां प्रसिद्ध हैं - 
1-इस शहर का पुराना नाम 'अर्बुदांचल 'बताया जाता है.पुरानो के अनुसार इस जगह को अर्बुदारान्य [अर्भु के वन.] के नाम से जाना जाता है.कहते हैं वशिष्ठ मुनि ने विश्वामित्र से अपने मतभेद के चलते इन वनों में अपना स्थान बना लिया था.

2-एक कहावत के अनुसार आबू नाम हिमालय के पुत्र आरबुआदा के नाम पर पड़ा था। आरबुआदा एक शक्तिशाली सर्प था, जिसने एक गहरी खाई में भगवान शिव के पवित्र वाहन नंदी बैल की जान बचाई थी ।

3-माउंट आबू अनेक ऋषियों और संतों का देश रहा है. इनमें सबसे प्रसिद्ध हुए ऋषि वशिष्ठ, कहा जाता है कि उन्होंने धरती को राक्षसों से बचाने के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया था और उस यज्ञ के हवन-कुंड में से चार अग्निकुल राजपूत उत्पन्न किए थे।

इस यज्ञ का आयोजन आबू के नीचे एक प्राकृतिक झरने के पास किया गया था, यह झरना गाय के सिर के आकार की एक चट्टान से निकल रहा था, इसलिए इस स्थान को गोमुख कहा जाता है।
४- पौराणिक कथाओं के अनुसार हिन्दू धर्म के तैंतीस करोड़ देवी देवता इस पवित्र पर्वत पर भ्रमण करते हैं.

५-कहा जाता है कि भारत में संत, महापुरुष यहाँ के पहाड़ों में निवास करते थे। मान्यता है कि हजारों देव, ऋषि-मुनि स्वर्ग से उतरकर इन पहाड़ों में निवास करते थे

६ -जैन धर्म के चौबीसवें र्तीथकर भगवान महावीर भी यहां आए थे। उसके बाद से माउंट आबू जैन अनुयायियों के लिए एक पवित्र और पूज्यनीय तीर्थस्थल बना हुआ है।
  
    -( साभार ~ विकिपीडिया )

हरे-भरे जंगलों से घिरी पहाड़ियों के बीच एक शांत स्थान, माउंट आबू, राजस्थान के रेतीले समुद्र में एक हरे मोती के समान है।

अरावली पर्वत श्रृंखला के दक्षिणी छोर पर स्थित इस पहाड़ी स्थान का ठंडा मौसम पूरे पहाड़ी क्षेत्र को फूलों से लाद देता है, जिसमें बड़े पेड़ और फूलों की झाड़ियां भी शामिल हैं


अगर माउंट आबू के इतिहास की बात करें तो कई और महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं । माउंट आबू पहले चौहान साम्राज्य का हिस्सा था। बाद में सिरोही के महाराजा ने माउंट आबू को राजपूताना मुख्यालय के लिए अंग्रेजों को पट्टे पर दे दिया। ब्रिटिश शासन के दौरान माउंट आबू मैदानी इलाकों की गर्मियों से बचने के लिए अंग्रेजों कापसंदीदा स्थान था। बहरहाल अब आबू राजस्थान की धड़कन है ।

माउंट आबू आकर सबसे ज्यादा जो स्थान अपनी ओर आकर्षित करता है वो है ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय -ओमशांति भवन ! जी हां शांति और सदभाव का जीता जागता उदाहरण ।

यात्रा के दौरान एक खास जानकारी मिली जिसने अचानक से करंट जिस झटका मारा । असल मे पूरी दुनिया में हिल स्टेशन माना जाने वाला 'माउंट आबू' प्रदेश सरकार की ओर से हिल स्टेशन घोषित नहीं है इसलिए यहाँ वनकर्मियों को हिलस्टेशन की सुविधाएँ (हार्ड ड्यूटी एलाउंस) नहीं मिलतीं।

दिलवाड़ा जैन मन्दिर - 
 कहते हैं कि अगर भारतीय संस्कृति की मजबूती देखनी है तो इसकी स्थापत्य कला को जरूर देखिए । जी हां चाहे लिंगराज मन्दिर हो ,चाहे कोणार्क का सूर्य मंदिर हो , चाहे देवगढ़ का दशावतार मन्दिर हो या देवगढ़ स्थित जैन मंदिर हों । ऐसा ही एक स्थान है माउंट आबू स्थित दिलवाड़ा जैन मंदिर जिसकी स्थापत्य कला बेजोड़ और अदभुत है । फिलहाल अब ये स्थान सरकार की देखरेख में है । लेकिन 11 वीं और 13 वी सदी के बीच बना यह मंदिर आज भी अपने लालित्यपूर्ण निर्माण की जीवन्तता को दर्शाता है । कहते हैं कि ये मंदिर किसी अजूबे से कम नही है । पूरा मन्दिर संगमरमर से निर्मित है जिसकी स्थापत्य कला शब्दो में बयां नही की जा सकती । अगर इतिहास की बात करें तो ये जैन तीर्थकारों के संगमरमर से बने ललित्यपूर्ण मंदिर हैं। प्रथम तीर्थकर का विमल विसाही मंदिर सबसे प्राचीनतम है। इसका निर्माण सन् 1031 में विमल विसाही नामक एक व्यापारी ने किया था जो उस समय के गुजरात के शासकों का प्रतिनिधि था। यह मंदिर वास्तुकला के सर्वोत्तम उदारहण हैं। यह पांच मंदिरों का समूह है । 




प्रमुख मंदिर में ऋषभदेव की मूर्ति व 52 छोटे मंदिरों वाला लम्बा गलियारा है, जिसमें प्रत्येक में तीर्थकरों की सुंदर प्रतिमाएँ स्थापित है तथा 48 ललित्यपूर्ण ढ़ग से तराशे हुए खंभे गलियारे का प्रवेश द्वारा बनाते हैं।
सबसे खास जानकारी मन्दिर के मुख्य द्वार के अंदर जाते ही पढ़ने को मिलती है जिसमे लिखा है कि "1231 में इस मंदिर को तैयार करने में 1500 कारीगरों ने काम किया था। वो भी कोई एक या दो साल तक नहीं। पूरे 14 साल बाद इस मंदिर को ये खूबसूरती देने में कामयाबी हासिल हुई थी। उस वक्त करीब 12 करोड़ 53 लाख रूपए खर्च किए गए।"


कुछ ही समय पहले मैं देवगढ़ की यात्रा पर गया था जहां हजारो वर्ष पुराने विष्णु भगवान के दशावतार मन्दिर को देखा था और वहीं से कुछ दूरी पर देवगढ़ जैन तीर्थ भी था जहां कई सारे मन्दिर ऐसी है बनावट के बने थे जैसे दिलवाड़ा में बने हैं ।बस अंतर था तो सिर्फ पत्थरो का । दिलवाड़ा के जैन मंदिरों का निर्माण संगमरमर से हुआ और देवगढ़ के जैन मंदिरों का निर्माण पत्थरो से । दोनों की स्थापत्य कला बेजोड़ और अदभुत है ।

नक्की झील-: 
 यात्रा के दौरान झील का मिलना अंदर से सुखद अनुभव देता है । पहाडियो के बीच स्थित नक्की झील एक सुरम्य छोटी सी झील नगर के मध्य स्थित होने के कारण पर्यटको के आकर्षण का केन्द्र है। इसमे नोका विहार भी है चार और छ सीट बोट का ३० मिनट का चार्ज है १००-२०० रुपया। जी हां अगर आप चाहे तो पेडल बोट भी ले सकते है। हमने भी इस झील में नौका बिहार करने का मन बनाया । फिर क्या पूरे आधे घण्टे इस झील का चक्कर लगाने का अनुभव शानदार रहा । 

झील के आसपास अनेक टापू भी है। नौका बिहार के दौरान ऐसा लगता है मानों ये टापू और आसपास के पेड़ पौधे हमारे साथ चल रहे हों । झील के चारो ओर चटटान की अजब सी आकृति विशेष आकर्षण का केन्द्र है।।  "टॉड रॉक" (चटटान) जो वास्तविक मेढक की तरह लगती है। देखने पर ऐसा लगता है मानो यह अभी झील मे कुद पडेगा। इसके अलावा "नन रॉक" " नन्दी - रॉक" आदि भी है। 
फिलहाल इस झील का नाम नक्की झील क्यों पड़ा । इसके पीछे भी काफी अलग ही एक कहानी है । जी हां नक्की झिल का नाम नक्की इसलिऐ पडा क्यो कि यह नाखुनो से खोदी गई थी।

आपको अगर इस बीच यात्रा के दौरान मजेदार चाय पीने का मन करे तो ठीक नक्की के सामने हॉटल है एक मलाई-चाय कि कीमत १० रुपया। यहॉ बर्हृमाकुमारी समुदाय का वर्ल्ड स्प्रीचुअल यूनिवर्ससिटी "ॐ शान्ति भवन" है। यहॉ के खम्बे युक्त हॉल मे तकरीबन ३५००-४००० लोगो के बैठ्ने कि जगह है, और ट्रान्सलेटर माइक्रो फोन द्वारा इच्छीत १०० भाषाओ मे व्याख्यान सुन सकते है।



हर पहाड़ी क्षेत्र में वहां की स्थानीय जाति काफी महत्वपूर्ण होती है । यहॉ गणगोर का त्योहार एक महीने तक चलता है जो माउन्ट आबू के जन्गलो मे रहने वाले गरासिया आदिवासी-जाति के लोग मनाते है। इसी त्योहार के दोरान आदिवासी युवक अपनी मनपसन्द लडकी के साथ विवाह रचाता है, जो देखने लायक है (पर आप को अगर यह फ्रेस्टिवल देखना हो तो स्थानीय लोगो के सहयोग से ही ऐसा करे।)

.....यात्रा जारी है ..... ( अनुज हनुमत की कलम से )

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