26 जून/जन्मदिवस: "वंदेमातरम् गीत के रचयिता बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय"


  भारत माता का ऐसा वीर सपूत जिसके लिखे एक गीत ने पूरे भारत को एकता के सूत्र में बांधने का कार्य किया । जी हाँ ! हम बात कर रहे हैं बंगला के प्रख्यात उपन्यासकार, कवि, गद्यकार और पत्रकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की जिन्होंने भारत के राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्' की रचना की । जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काल में क्रान्तिकारियों का प्रेरणास्रोत बन गया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पूर्ववर्ती बांग्ला साहित्यकारों में उनका अन्यतम स्थान है।

आधुनिक युग में बंगला साहित्य का उत्थान उन्नीसवीं सदी के मध्य से शुरु हुआ। इसमें राजा राममोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, प्यारीचाँद मित्र, माइकल मधुसुदन दत्त, बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अग्रणी भूमिका निभायी। इसके पहले बंगाल के साहित्यकार बंगला की जगह संस्कृत या अंग्रेजी में लिखना पसन्द करते थे। बंगला साहित्य में जनमानस तक पैठ बनाने वालों मे शायद बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय पहले साहित्यकार थे।

बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म २6 जून सन् १८३८ को उत्तरी चौबीस परगना के कन्थलपाड़ा में एक परंपरागत और समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ था।

बंकिमचंद्र चटर्जी की पहचान बांग्ला कवि, उपन्यासकार, लेखक और पत्रकार के रूप में है। उनकी प्रथम प्रकाशित रचना राजमोहन्स वाइफ थी। इसकी रचना अंग्रेजी में की गई थी। उनकी पहली प्रकाशित बांग्ला कृति 'दुर्गेशनंदिनी' मार्च १८६५ में छपी थी। यह एक रूमानी रचना है। उनकी अगली रचना का नाम कपालकुंडला (1866) है। इसे उनकी सबसे अधिक रूमानी रचनाओं में से एक माना जाता है। उन्होंने 1872 में मासिक पत्रिका बंगदर्शन का भी प्रकाशन किया। अपनी इस पत्रिका में उन्होंने विषवृक्ष (1873) उपन्यास का क्रमिक रूप से प्रकाशन किया। कृष्णकांतेर विल में चटर्जी ने अंग्रेजी शासकों पर तीखा व्यंग्य किया है। आनंदमठ (१८८२) राजनीतिक उपन्यास है। इस उपन्यास में उत्तर बंगाल में 1773 के सन्यासी विद्रोह का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में देशभक्ति की भावना है। चटर्जी का अंतिम उपन्यास सीताराम (1886) है। इसमें मुस्लिम सत्ता के प्रति एक हिंदू शासक का विरोध दर्शाया गया है। उनके अन्य उपन्यासों में दुर्गेशनंदिनी, मृणालिनी, इंदिरा, राधारानी, कृष्णकांतेर दफ्तर, देवी चौधरानी और मोचीराम गौरेर जीवनचरित शामिल है। उनकी कविताएं ललिता ओ मानस नामक संग्रह में प्रकाशित हुई। उन्होंने धर्म, सामाजिक और समसामायिक मुद्दों पर आधारित कई निबंध भी लिखे। बंकिमचंद्र के उपन्यासों का भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया। बांग्ला में सिर्फ बंकिम और शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय को यह गौरव हासिल है कि उनकी रचनाएं हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में आज भी चाव से पढ़ी जाती है। लोकप्रियता के मामले में बंकिम और शरद और रवीन्द्र नाथ ठाकुर से भी आगे हैं। बंकिम बहुमुखी प्रतिभा वाले रचनाकार थे। उनके कथा साहित्य के अधिकतर पात्र शहरी मध्यम वर्ग के लोग हैं। इनके पात्र आधुनिक जीवन की त्रासदियों और प्राचीन काल की परंपराओं से जुड़ी दिक्कतों से साथ साथ जूझते हैं। यह समस्या भारत भर के किसी भी प्रांत के शहरी मध्यम वर्ग के समक्ष आती है। लिहाजा मध्यम वर्ग का पाठक बंकिम के उपन्यासों में अपनी छवि देखता है।

वंदे मातरम् के इतिहास पर छपी पुस्तक के लेखक सव्यसाची भट्टाचार्य ने एक निजी चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा था की,'बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में किसी समय वंदे मातरम् को लिखा अक्सर विवाद ऐसे लोग पैदा करते हैं जिनका मुद्दे से कोई संबंध नहीं होता. हमारे समाज के लोगों का एक समूह है, शायद छोटा सा, जो महसूस करता है कि वंदे मातरम् मूर्ति की वंदना है और उनके धर्म के अनुकूल नहीं है ।अगर यही भावना है तो हमें वंदे मातरम् गाना अनिवार्य करने के बारे में भूल जाना चाहिए और इसे सबके लिए ज़रूरी और बाध्यकारी नहीं करना चाहिए।मैं मानता हूँ कि गीत गाना एक भावनात्मक अनुभव है. यह एक सांस्कृतिक रचना का समर्थन है। मैं यह कहना चाहता हूँ कि अगर किसी को आपत्ति है तो उसके लिए वंदे मातरम् गाना अनिवार्य नहीं करना चाहिए।'

रिपोर्ट :
अनुज हनुमत सत्यार्थी

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