भावनाओं का मकड़जाल, जो हमें खुशी भी देता है और अवसाद में भी ले जाता है
सोचने वाली बात यह भी है कि आखिर ये भाव आते कहां से हैं और आखिरकार ऐसा कौन सा कार्य किया जाए कि हमारे भाव हमेशा हमें नयी खुशियां प्रदान करते रहें। साथ ही इन भावों से जन्म देने वाली नित नई 'भावनाएं' कैसे स्थिर रहें...? क्या वाकई ऐसा कोई कार्य है जिससे हम ऐसे भावों की खोज कर सकते हैं जिनसे हम हर पल खुश रहें या हम कभी न मिलने वाली मंजिल के पीछे व्यर्थ ही भाग रहे हैं, पर सोचने भर से हम इतने खूबसूरत एहसास को पीछे नही छोड़ सकते हैं! मेरे अनुसार कहीं न कहीं हमारे अंदर वही भाव जन्म लेते हैं जैसी परिस्थिति हमारे सामने होती है। अर्थात हमारे भाव स्वतः ही परिस्थिति वश हमें अपने वश में कर लेते हैं। पर कुछ लोगों का यह भी मानना है कि अक्सर भावों के आने से पहले हमें एक सांकेतिक सूचना प्राप्त होती है, जो अक्सर हमें उनसे परिचित कराती है। पर क्या वास्तव में भाव स्वतः नहीं आते या उनके आने से पूर्व किसी भी प्रकार की परिस्थिति का उनसे सीधा सम्पर्क होता है!
जो भी हो, पर इतना स्पष्ट है कि मनुष्य के अंदर जो भाव अकस्मात आते हैं उनका मानव जीवन पर सीधा बदलाव देखा जाता है। जो भाव परिस्थिति के आने पर अपनी जगह लेते हैं, उनसे मनुष्य काफी कुछ सीखता है! अर्थात दोनों ही परिस्थतियों में ये 'भाव' मनुष्य के जीवन पर अच्छा खासा परिवर्तनशील बदलाव छोड़ जाते हैं और आगे के समय के लिए काफी कुछ सीखा भी जाते हैं। पर इन्हीं भावों को जन्म देने वाली भावनाएं मनुष्य पर कैसा प्रभाव डालती हैं, ये तो काफी कठिन प्रश्न है। क्योंकि ज्यादातर मौके ऐसे होते हैं जब हमारी भावनाएं हमें विचलित कर देती हैं और हम किसी भी प्रकार का निर्णय ले पाने में असमर्थ होते हैं। ऐसी दशा में हमारा निर्णय लेने का दृष्टिकोण हमारी उस भावना से प्रेरित रहता है! भावनाएं स्थिर होती है कि चलायमान, ये तो उनकी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। पर ये भावनाएं ही होती हैं जो व्यक्ति को मजबूत भी बनाती हैं और कमजोर भी! आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में व्यक्ति के अंदर बहुत ही कम भावनाएं जीवित रह गई हैं, जिस कारण हमने खुद को मशीनों के साथ उनकी प्रथम पंक्ति में सबसे आगे स्थापित कर रखा है।
कहते हैं कि मनुष्य सबसे ज्यादा अपने रिश्तों में अपनी 'भावनाओं' को प्रदर्शित करता है और इन्हीं रिश्तो में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार की भावनाएं बसी होती हैं। बस ये तो हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम अपने रिश्तों को किस भावना के साथ जी रहे हैं। क्योंकि जब किसी भी रिश्ते में भावनाएं जुड़ती हैं तो ये भावनाएं उस रिश्ते को और भी खास बना देती हैं और हम उसी भावना में डूबते चले जाते हैं। दो-तीन साल पहले मैं भी इन भावनाओं को ज्यादा तवज्जो नहीं देता था। मेरा मानना था कि असल में हम ही अपनी जिंदगी के असली राजा हैं जो इन भावनाओं को बनाता और बिगाड़ता है। पर मेरी व्यक्तिगत जिंदगी में मेरे साथ ऐसे कई वाकये हुए जिन्होंने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया और अंदर से झकझोर दिया। तब जाकर मुझे महसूस हुआ कि 'भावनाएं' क्या होती हैं और हमारे लिए कितना खास और प्यारा स्थान रखती हैं जिंदगी में!
मैंने ये भी महसूस किया है कि ये भावनाएं हमें एक अदद मौका जरूर देती हैं, जिससे हम खुद रिश्तों में पैदा हुई कड़वाहट को दूर करके उनमे मिठास घोल सकें। पर ज्यादातर मौकों पर हम अपने मन का करते हैं। ऐसे में कई बार हम उस एक मौके को खो देते हैं, जिससे वह रिश्ता हमसे छूट जाता है। इसके फलस्वरूप हम और हमारा जीवन निराशा के दलदल में डूब जाता है। इसका असर यह होता है कि हमें हर रिश्ता दुःख का पिटारा लगने लगता है। ऐसे में कई बार हम इसे मात्र इसलिए स्पर्श नहीं करते कि कहीं इसके अंदर से भावनाओं का एक और 'जिन्न' ना निकल आये।
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