आज शहीद दिवस विशेष 08 अप्रैल :मंगल पांडेय


 "हम है इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा,
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा।
ये है हमारी मिल्कियत, हिन्दुस्तान हमारा,
इसकी रू हानियत से, रौशन है जग सारा;
कितना कदीम कितना नईम, सब दुनिया से न्यारा,
करती है जरखेज जिसे, गंगो-जमन की धारा।"
     (सन 1857 में राष्ट्रध्वज की सलामी के समय जगह-जगह में यह गीत गाया जाता था। मूल गीत 57 क्रांति-अखबार च् पयामे-आजादी छ में छपाया गया था। जिसकी एक नकल ब्रिटिश म्युजियम लंदन में आज भी मौजूद है।)

   ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ जंग और आजादी का ख्याल आते ही कई नाम और चेहरे बरबस याद आ जाते हैं। एक लंबी लड़ाई, हजारों कुर्बानियां और तमाम जुल्मों-सितम के बाद हिन्दुस्तान 15 अगस्त 1947 की आधी रात अंग्रेजों से मुक्त हो गया था। एक लंबे समय से गुलामी की बेडिय़ों में जकड़े भारतीय समाज को खुली हवा में सांस लेने का मौका मिला तो हर ओर बस जश्न का माहौल था।
हर कोई आजादी के मतवालों को याद कर रहा था जिनके बलिदान से भारतीयों को मुक्ति मिली थी। मंगल पांडेय भी उन्हीं क्रांतिकारियों में से एक थे।आज उनका शहदत दिवस है ,आज ही के दिन ०८ अप्रैल १८५७ को उन्हें फांसी दी गई थी  या यूं कहें कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले नायक थे ,जिनके विद्रोह से निकली चिंगारी ने पूरे उत्तर भारत को आग के शोले में तब्दील कर दिया था। दिल्ली लाशों से अटी पड़ी थी। डरे-सहमे ब्रिटिश अफसरों ने रातों-रात मंगल पांडेय को फांसी पर लटका दिया था और हजारों दमनकारी कानून सिर्फ इसलिए बना दिए थे ताकि दोबारा कोई मंगल पांडेय पैदा ही ना हो सके।

 मंगल पांडे  का जन्म उत्तरी भारत में पूर्वी उत्तर प्रदेश के फैजाबाद ग्राम में दिवाकर पांडे के परिवार में  हुआ था. जन्म से ही हिंदु धर्म पर उनका बहोत विश्वास था, उनके अनुसार हिंदु धर्म श्रेष्ट धर्म था. 1849 में पांडे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्मी में शामिल हुए. कहा जाता है की किसी ब्रिगेड के द्वारा उनकी आर्मी में भर्ती की गयी थी. 34 बंगाल थलसेना की कंपनी में उन्हें 6ठी कंपनी में शामिल किया गया, मंगल पांडे का ध्येय बहोत ऊँचा था, वे भविष्य में एक बड़ी सफलता हासिल करना चाहते थे . 1850 के मध्य में उन्हें बैरकपुर (बैरकपुर) की रक्षा टुकड़ी में तैनात किया गया. तभी भारत में एक नयी रायफल का निर्माण किया गया और मंगल पांडे चर्बी युक्त हथियारों पर रोक लगाना चाहते थे. ये अफवाह फ़ैल गयी थी की लोग हथियारों को चिकना बनाने के लिए गाय या सूअर के मॉस का उपयोग करते है, जिससे हिंदु और मुस्लिम में फुट पड़ने लगी थी.

 विद्रोह का प्रारम्भ एक
बंदूक की वजह से हुआ। सिपाहियों को पैटऱ्न १८५३ एनफ़ील्ड बंदूक दी गयीं जो कि ०.५७७ कैलीबर की बंदूक थी तथा पुरानी और कई दशकों से उपयोग मे लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले मे शक्तिशाली और अचूक थी। नयी बंदूक मे गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (प्रिकशन कैप) का प्रयोग किया गया था परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पडता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पडता था। कारतूस का बाहरी आवरण मे चर्बी होती थी जो कि उसे नमी अर्थात पानी की सीलन से बचाती थी।

सिपाहियों के बीच अफ़वाह फ़ैल चुकी थी कि कारतूस मे लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है। यह हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों दोनो की धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था। ब्रितानी अफ़सरों ने इसे अफ़वाह बताया और सुझाव दिया कि सिपाही नये कारतूस बनाये जिसमे बकरे या मधुमक्क्खी की चर्बी प्रयोग की जाये। इस सुझाव ने सिपाहियों के बीच फ़ैली इस अफ़वाह को और पुख्ता कर दिया। दूसरा सुझाव यह दिया गया कि सिपाही कारतूस को दांतों से काटने की बजाय हाथों से खोलें। परंतु सिपाहियों ने इसे ये कहते हुए अस्विकार कर दिया कि वे कभी भी नयी कवायद को भूल सकते हैं और दांतों से कारतूस को काट सकते हैं।

तत्कालीन ब्रितानी सेना प्रमुख (भारत) जार्ज एनसन ने अपने अफ़सरों की सलाह को दरकिनार हुए इस कवायद और नयी बंदूक से उत्पन्न हुई समस्या को सुलझाने से मना कर दिया।
 २० मार्च १८५७ को सैनिकों को एक नए प्रकार के कारतूस  दिए गए .., इन कारतूसों को मुंह में दांतों में दवा कर खोला जाता था , ये गाय और सूअर की चरवी से चिक्नें किये गए थे , ताकि हिदू और मुस्लिम सैनिक धर्म के प्रति अनुराग  छोड़ कर, धर्म विमुख हों ..!   
        २९ मार्च सन १८५७ को नए कारतूस के प्रयोग करवाया गया , मंगल पण्डे ने आगया मानाने से मना कर दिया , और धोके से धर्म भ्रष्ट करने की कोशिस के खिलाफ उन्हें भला बुरा कहा , इस पर अंग्रेज अफसर ने सेना को हुकम दिया की उसे गिरफतार किया जाये , सेना ने हुकम नहीं मना ..! पलटन के सार्जेंट हडसन स्वंय मंगल पांडे को पकड़ने  आगे बड़ा तो , पांडे ने उसे गोली मार दी ., तब लेफ्टीनेंट बल आगे बड़ा तो उसे भी पांडे ने गोली मार दी ..! मौजूद अन्य अंग्रेज सिपाहियों नें मंगल पांडे को घायल कर पकड़ लिया |  उन्होने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान किया। किन्तु उन्होने उनका साथ नहीं दिया । उन पर मुकदमा (कोर्ट मार्शल) चलाकर ६ अप्रैल १८५७ को मौत की सजा सुना दी गई। १८ अप्रैल१८५७  को उन्हें फांसी की सजा मिलनी थी। किंतु इस निर्णय की प्रतिक्रिया विकराल रूप न ले सके, इस रणनीति के तहत ब्रिटिस सरकार ने मंगल पांडे को दस दिन पूर्व ही ८ अप्रैल सन १८५७ को फांसी दे दी।
        मंगल पांडे द्वारा लगायी गयी चिनगारी बुझी नहीं। एक महीने बाद ही १० मई सन १८५७ को मेरठ की छावनी में विप्लव (बगावत) हो गया । यह विपलव देखते ही देखते पूरे उत्तरी भारत में छा गया और अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज्य करना आसान नहीं है।

  भारत में, मंगल पांडे एक महान क्रांतिकारी के नाम से जाने जाते है. जिन्होंने ब्रिटिश कानून का विरोध किया. भारत सरकार द्वारा 1984 में उनके नाम के साथ ही उनके फोटो का एक स्टेम्प भी जारी किया. वे पहले स्वतंत्रता क्रांतिकारी थे जिन्होंने सबसे पहले ब्रिटिश कानून का विरोध किया था. मंगल पांडे चर्बी युक्त कारतूसो के खिलाफ थे. वे भली-भांति जानते थे की ब्रिटिश अधिकारी, हिंदु सैनिको और ब्रिटिश सैनिको में भेदभाव करते थे. इन सब से ही परेशान होकर उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियो से लढने का बीड़ा उठाया. उन्होंने आज़ादी की लड़ाई की चिंगारी भारत में लगाई थी जिसने बाद में एक भयंकर रूप धारण कर लिया था. और अंत में भारतीयों से हारकर अंग्रेजो को भारत छोड़ना ही पड़ा.

     "अन्धा चकाचौंध का मारा
           क्या जाने इतिहास बेचारा 
      जो चढ़ गए पुष्प वेदी पर 
           लिए बिना गर्दन का मोल 
      कलम आज उनकी जय बोल।"

आपका
अनुज हनुमत 'सत्यार्थी

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